अकाल-घन / अज्ञेय

घन अकाल में आये, आ कर रो गये।
अगिन निराशाओं का जिस पर पड़ा हुआ था धूसर अम्बर,
उस तेरी स्मृति के आसन को अमृत-नीर से धो गये।
घन अकाल में आये, आ कर रो गये।

जीवन की उलझन का जिस को मैं ने माना था अन्तिम हल
वह भी विधि ने छीना मुझ से मुझे मृत्यु भी हुई हलाहल!
विस्मृति के अँधियारे में भी स्मृति के दीप सँजो गये-
घन अकाल में आये, आ कर रो गये।

जीवन-पट के पार कहीं पर काँपीं क्या तेरी भी पलकें?
तेरे गत का भाल चूमने आयीं बढ़ पीड़ा की अलकें!
मैं ही डूबा, या हम दोनों घन-सम घुल-घुल खो गये?
घन अकाल में आये, आ कर रो गये।

यहाँ निदाघ जला करता है-भौतिक दूरी अभी बनी है;
किन्तु ग्रीष्म में उमस सरीखी हाय निकटता भी कितनी है!
उठे बवंडर, हहराये, फिर थकी साँस-से सो गये!
घन अकाल में आये, आ कर रो गये।

कसक रही है स्मृति कि अलग तू पर प्राणों की सूनी तारें,
आग्रह से कम्पित हो कर भी बेबस कैसे तुझे पुकारें?
‘तू है दूर’, यहीं तक आ कर वे हत-चेतन हो गये?
घन अकाल में आये, आ कर रो गये!

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