बे-क़नाअत काफ़िले हिर्स ओ हवा ओढ़े हुए / ‘ज़फ़र’ मुरादाबादी

बे-क़नाअत काफ़िले हिर्स ओ हवा ओढ़े हुए मंज़िलें भी क्यूँ न हों फिर फ़ासला ओढ़े हुए इस क़दर ख़िल्क़त मगर है मौत को फ़ुर्सत बहुत हर बशर है आज ख़ु अपनी क़जा़ ओढ़े हुए उन के बातिन में मिला शैतान ही मसनद-नर्शी जो ब-ज़ाहिर थे बहुत नाम-ए-ख़ुदा ओढ़े हुए क्या करे कोई किसी से पुर्सिश-ए-अहवाल… Continue reading बे-क़नाअत काफ़िले हिर्स ओ हवा ओढ़े हुए / ‘ज़फ़र’ मुरादाबादी

बढ़े कुछ और किसी इल्तिजा से कम न हुए / ‘ज़फ़र’ मुरादाबादी

बढ़े कुछ और किसी इल्तिजा से कम न हुए मेरी हरीफ़ तुम्हारी दुआ से कम न हुए सियाह रात में दिल के मुहीब सन्नाटे ख़रोश-ए-नग़मा-ए-शोला-नवा से कम न हुए वतन को छोड़ के हिजरत भी किस को रास आई मसाएल उन के वहाँ भी ज़रा से कम न हुए फ़राज़-ए-ख़ल्क से अपना लहू भी बरसाया… Continue reading बढ़े कुछ और किसी इल्तिजा से कम न हुए / ‘ज़फ़र’ मुरादाबादी