कोई भी पूरी तरह पहचाना हुआ नहीं दोस्तों के चेहरों पर चढ़े मुखौटे चक्रव्यूह छोटे बड़े अपने – पराये द्रोणाचार्यों के बनाए पहली से पांचवीं मंजिल तक पसरे भीतर जाकर निकलना रोज महत्वाकांक्षाएं लील जातीं संवेदनाएं, शुभेच्छाएं यह कैसा शहर
Category: Sangeeta Gupta
बरगद / संगीता गुप्ता
बरगद के नीचे आकर निश्चिन्त हो जाते हैं धूप से अकुलाए लोग आकर ठहरे जीने लगते उसकी छाया में नहीं चाहता बरगद समर्थ पिता की तरह कि कोई बना रहे हमेशा उसकी छत्र – छाया में कटता चला जाए अपनी जड़ो से बरगद की मंशा नहीं फितरत है कुदरत की न पनपने देना किसी को… Continue reading बरगद / संगीता गुप्ता