मिल नगर से न फिर वो नदी रह गई। लुट गया शुद्ध जल, गंदगी रह गई। लाल जोड़ा पहन साँझ बिछड़ी जहाँ, साँस दिन की वहीं पर थमी रह गई। कुछ पलों में मिटी बिजलियों की तपिश, हो के घायल हवा चीखती रह गई। रात ने दर्द-ए-दिल को छुपाया मगर, दूब की शाख़ पर कुछ… Continue reading मिल नगर से न फिर वो नदी रह गई / ‘सज्जन’ धर्मेन्द्र
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ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर कारख़ानों पर / ‘सज्जन’ धर्मेन्द्र
ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर कारख़ानों पर। ये फ़न वरना मिलेगा जल्द रद्दी की दुकानों पर। कलन कहता रहा संभावना सब पर बराबर है, हमेशा बिजलियाँ गिरती रहीं कच्चे मकानों पर। लड़ाकू जेट उड़ाये ख़ूब हमने रात दिन लेकिन, कभी पहरा लगा पाये न गिद्धों की उड़ानों पर। सभी का हक है जंगल पे कहा… Continue reading ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर कारख़ानों पर / ‘सज्जन’ धर्मेन्द्र