तबीअत रफ़्ता रफ़्ता ख़ूगर-ए-ग़म होती जाती है / सदा अम्बालवी

तबीअत रफ़्ता रफ़्ता ख़ूगर-ए-ग़म होती जाती है वही रंज-ओ-अलम है पर ख़लिश कम होती जाती है ख़ुशी का वक़्त है और आँख पुर-नम होती जाती है खिली है धूप और बारिश भी छम-छम होती जाती है उजाला इल्म का फैला तो है चारों तरफ़ यारों बसीरत आदमी की कुछ मगर कम होती जाती है करें… Continue reading तबीअत रफ़्ता रफ़्ता ख़ूगर-ए-ग़म होती जाती है / सदा अम्बालवी

चलो कि हम भी ज़माने के साथ चलते हैं / सदा अम्बालवी

चलो कि हम भी ज़माने के साथ चलते हैं नहीं बदलता ज़माना तो हम बदलते हैं किसी को क़द्र नहीं है हमारी क़द्रों की चलो कि आय ये क़द्रें सभी बदलते हैं बुला रही हैं हमें तल्ख़ियाँ हक़ीक़त की ख़याल-ओ-ख़्वाब की दुनिया से अब निकलते हैं बुझी से आग कभी पेट की उसूलों से ये… Continue reading चलो कि हम भी ज़माने के साथ चलते हैं / सदा अम्बालवी