बहु पद जोरि-जोरि करि गावहिं / जगजीवन

बहु पद जोरि-जोरि करि गावहिं। साधन कहा सो काटि-कपटिकै, अपन कहा गोहरावहिं॥ निंदा करहिं विवाद जहाँ-तहँ, वक्ता बडे कहावहिं। आपु अंध कछु चेतत नाहीं, औरन अर्थ बतावहिं॥ जो कोउ राम का भजन करत हैं, तेहिकाँ कहि भरमावहिं। माला मुद्रा भेष किये बहु, जग परबोधि पुजावहिं॥ जहँते आये सो सुधि नाहीं, झगरे जन्म गँवावहिं। ‘जगजीवन’ ते… Continue reading बहु पद जोरि-जोरि करि गावहिं / जगजीवन

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यह नगरी महँ परिऊँ भुलाई / जगजीवन

यह नगरी महँ परिऊँ भुलाई। का तकसीर भई धौं मोहि तें, डारे मोर पिय सुधि बिसराई॥ अब तो चेत भयो मोहिं सजनी ढुँढत फिरहुँ मैं गइउँ हिराई। भसम लाय मैं भइऊँ जोगिनियाँ, अब उन बिनु मोहि कछु न सुहाई॥ पाँच पचीस की कानि मोहि है, तातें रहौं मैं लाज लजाई। सुरति सयानप अहै इहै मत,… Continue reading यह नगरी महँ परिऊँ भुलाई / जगजीवन

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