एक उदास शाम भी हो जाती है स्वर्णिम अनवरत संघर्ष के बाद दिख जाती है – दूर कहीं झीनी-सी सम्भावनाएँ जुगनू-सा आलोक सुप्त-सी चिंगारी, आओ, संघर्ष की फूँक से उसे भभका दें। रात अभी हुई नहीं मंज़िल नज़दीक है।
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कर्त्तव्य / हरे राम सिंह
अभी तू यहीं कहीं थी – पास में और लुटा रही थी अपने नीले गले से रस माधुरी। मैं सावधान सिपाही चौकस संगीन ताने दुश्मन की टोह ले रहा था कि तू नज़रों के सामने झिलमिला उठी। तेरी आँखों के तिलों पर नज़रें थिर कर जैसे ही- तुझे चूमने को बढ़ा कि एक कड़कती हुई… Continue reading कर्त्तव्य / हरे राम सिंह