अँधेरे के विरुद्ध / दयानन्द ‘बटोही’

अब मैं छटपटाता रहा हूँ तुम तो ख़ुश हो न? मेरी रौशनी दो, दो! मत दो? गहराने देता हूँ दर्द आख़िर रौशनी मेरी ही है न? तुमने कितनी सहजता से माँग लिया था आँखों की रौशनी को मैंने बिना हिचक दिया था ताकि तुम्हें कहीं परेशानी न हो न कुत्ते नोचें न कोई चोर-लबार सोचे… Continue reading अँधेरे के विरुद्ध / दयानन्द ‘बटोही’

द्रोणाचार्य सुनें: उनकी परम्पराएँ सुनें / दयानन्द ‘बटोही’

सुनो! द्रोण सुनो! एकलव्य के दर्द में सनसनाते हुए घाव को महसूसता हूँ एकबारगी दर्द हरियाया है स्नेह नहीं, गुरु ही याद आया है जिसे मैंने हृदय में स्थान दिया हाय! अलगनी पर टंगे हैं मेरे तरकश और बाण तुम्हीं बताओ कितना किया मैंने तुम्हारा सम्मान! लेकिन! एक बात दुनिया को बताऊँगा तुम्हीं ने उछलकर… Continue reading द्रोणाचार्य सुनें: उनकी परम्पराएँ सुनें / दयानन्द ‘बटोही’

द्युपितर सुनो / दयानन्द ‘बटोही’

आज अग्नि जलाकर मैंने स्वाद-भरा भोजन किया जनता सकुचाती नितराती गाती है सच-सच बतलाओ द्युपितर कब तक अँधेरे में रखोगे? मैंने जान लिया है तुम्हारी नीति को तुम्हारी भाषा को आस्था से नहीं घबराहट से जनता तुम्हें पूजती रही अब तुम्हारी यन्त्रणा— मेरी नीति को यातना-भरे भाव को समझकर यातनाओं के जंगल में लहूलुहान हो… Continue reading द्युपितर सुनो / दयानन्द ‘बटोही’