ऋचाएँ प्रणय-पुराणों की / भगवत दुबे

छूते ही हो गयी देह कंचन, पाषाणों की, हैं कृतज्ञ धड़कनें, हमारे पुलकित प्राणों की! खंजन नयनों के नूपुर जब तुमने खनकाये, तभी मदन के सुप्त पखेरू ने पर फैलाये। कामनाओं में होड़ लगी फिर उच्च उड़ानों की। यौवन की फिर उमड़-घुमड़कर बरसी घनी घटा, संकोचों के सभी आवरण हमने दिये हटा। स्वतः सरकने लगी… Continue reading ऋचाएँ प्रणय-पुराणों की / भगवत दुबे

आप बड़े हैं / भगवत दुबे

आप निगलते सूर्य समूचा अपने मुँह मिट्ठू बनते हैं, हमने माना आप बड़े हैं! पुरखों की उर्वरा भूमि से यश की फसल आपने पायी, अपनी महनत से, बंजर में हमने थोड़ी फसल उगाई। हम ज़मीन पर पाँव रखे हैं, पर, काँधों पर आप चढ़े हैं! किंचित किरणों को हम तरसे आप निगलते सूर्य समूचा, बाँह… Continue reading आप बड़े हैं / भगवत दुबे