समन्दर में सफ़र के वक़्त कोई नाव जब उलटी । तो उस दम लोग कहते हैं नहीं मौजों की कुछ ग़लती । तुफ़ानी हाल तो केवल कभी बरसों में बनते हैं, शकिस्ता[1] कश्तियाँ तो ठहरे पानी में नहीं चलती । करे उस पल में कोई क्या उदू[2] जब ना-ख़ुदा[3] ठहरे, मुसाफ़िर की तो हसरत[4] ख़ुद… Continue reading समन्दर में सफ़र के वक़्त कोई नाव जब उलटी / बलजीत सिंह मुन्तज़िर
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ज़िन्दगानी के भी कैसे-कैसे मंज़र हो गए / बलजीत सिंह मुन्तज़िर
ज़िन्दगानी के भी कैसे-कैसे मंज़र[1] हो गए । बे-सरोसामाँ[2] तो थे ही, अब तो बेघर हो गए । तुमसे मिलने पर बड़े आशुफ़्तासर[3] थे उन दिनों, तुमसे बिछड़े तो हमारे दर्द बेहतर हो गए । एक क़तरे[4] भर की आँखों में थी उनकी हैसियत, अश्क[5] जब पलकों से निकले तो समन्दर हो गए । कितनी… Continue reading ज़िन्दगानी के भी कैसे-कैसे मंज़र हो गए / बलजीत सिंह मुन्तज़िर