मिट्टी की कविता / हेमन्त कुकरेती

मिट्टी को पानी ही पत्थर बनाता है
पानी में भीगकर ही वह होता है कोमल
सम्भव है आग के भीतर बूँद की उपस्थिति
आकाश में पृथ्वी का जीवन

तितलियाँ कितने युगों से रंगों की काँपती हुई
चुप्पी को ढो रही हैं अपनी काया पर
फूल किसके प्रेम की यातना में सुगलते हैं
और जाने किसकी स्मृति में हो जाते हैं मिट्टी

जीवित रहने के लिए प्राण आत्मा के साथ चाहिए
निरा शरीर अन्न की गन्ध से रहित है
बचे रहने का अर्थ बीज बनने में नहीं है
तो कोई भी कवच नहीं है काम का

इस नाकाम दुनिया में बड़ा लाभ है
बेकार के धन्धों में
बाक़ी तो ऐसा व्यापार है कि
ख़ुद को ख़रीदकर
बचे रहें बिकने से
और ईश्वर का महत्त्व दैनिक भविष्यफल के अलावा
नहीं है कुछ भी

ऱोका गया भरसक प्रेम करने से
वक़्त काटने के लिए नहीं किया प्रेम
वह जीवन का नमक था पाने के लिए उसे
अपनी मिट्टी को फिर से गूँथकर देनी पड़ी शक्ल

बादलों में होती है बिजली
प्रेम के चमकते मुख पर कहीं गहरे धँसे होते हैं दुख
उनसे होकर हम पहुँचते हैं और नज़दीक एक-दूसरे के….
अन्त हमें तोड़कर फिर बनने की देता है चुनौती
हम हो जाते हैं मिट्टी

मिट्टी कभी नहीं मरती बढ़ जाती है थोड़ी-सी

जिसके पास सिर्फ़ अपनी जान है

जो झाड़ियों में छिपा था
वह भालू ही रहा होगा
इसलिए कि जो आलू खाते थे उसके किस्से से ही डर गये
जो आलू उगाते थे उन्होंने ही भालू को हड़काया

गर्म होने के लिए वे दूध पीने चले गये
जो मवेशी चराकर लौटे उनका तो पसीना ही
इतना तेजाब है कि बंजर जला दे

बसाने के नाम पर जो बस्तियाँ जलाते हैं
वे हिमालय को गलाकर
उसका पानी सात समन्दर पार भेजते हैं
और गंगा के किनारे शराब की बोतलों में बेचते हैं

बचाने के लिए जिनके पास सिर्फ़ अपनी जान है
वह क्यों इन्हें चुनता है
और अपने उगाये आलू की क़ीमत से डरकर
झाड़ियों में शरण लेता है

वह किस्सों से बाहर आकर उन्हें अन्दर क्यों नहीं करता
जो इनके घरों पर कब्ज़ा करने के बाद
खेतों में अन्तरिक्ष नरक बनाना चाहते हैं

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