ख़ू समझ में नहीं आती तेरे दीवानों की / हसरत मोहानी

ख़ू[1] समझ में नहीं आती तेरे दीवानों की
जिनको दामन की ख़बर है न गिरेबानों की

आँख वाले तेरी सूरत पे मिटे जाते हैं
शम‍अ़-महफ़िल की तरफ़ भीड़ है परवानों की

राज़े-ग़म से हमें आगाह किया ख़ूब किया
कुछ निहायत[2] ही नहीं आपके अहसानों की

आशिक़ों ही का जिगर है कि हैं ख़ुरसंदे-ज़फ़ा[3]
काफ़िरों की है ये हिम्मत न मुसलमानों की

याद फिर ताज़ा हुई हाल से तेरे ‘हसरत’
क़ैसो-फ़रहाद के भूले हुए अफ़सानों की

शब्दार्थ:
1. आदत
2. हद
3. अकृपा पर भी प्रसन्न

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