एक बस तू ही नहीं मुझसे ख़फ़ा हो बैठा
मैं ने जो संग तराशा वो ख़ुदा हो बैठा
उठ के मंज़िल ही अगर आये तो शायद कुछ हो
शौक़-ए-मंज़िल में मेरा आबलापा हो बैठा
मसलहत छीन गई क़ुव्वत-ए-गुफ़्तार मगर
कुछ न कहना ही मेरा मेरी सदा हो बैठा
शुक्रिया ए मेरे क़ातिल ए मसीहा मेरे
ज़हर जो तुमने दिया था वो दवा हो बैठा
जाने ‘शहज़ाद’ को मिनजुम्ला-ए-आदा पाकर
हूक वो उट्ठी के जी तन से जुदा हो बैठा