विजन में / रामधारी सिंह “दिनकर”

विजन में गिरि निर्वाक खड़ा निर्जन में, दरी हृदय निज खोल रही है, हिल-डुल एक लता की फुनगी इंगित में कुछ बोल रही है। सांझ हुई, मैं खड़ा दूब पर तटी-बीच कर देर रहा हूँ; गहन शान्ति के अंतराल में डूब-डूब कुछ हेर रहा हूँ। मुझ मानव को क्षितिज-वृत्त से घेर रही नीलिमा गगन की,… Continue reading विजन में / रामधारी सिंह “दिनकर”

कालिदास / रामधारी सिंह “दिनकर”

कालिदास समय-सिन्धु में डूब चुके हैं मुकुट, हर्म्य विक्रम के, राजसिद्धि सोई, कब जानें, महागर्त में तम के। समय सर्वभुक लील चुका सब रूप अशोभन-शोभन, लहरों में जीवित है कवि, केवल गीतों का गुंजन। शिला-लेख मुद्रा के अंकन, अब हो चुके पुराने, केवल गीत कमल-पत्रों के हैं जाने-पहचाने। सब के गए, शेष हैं लेकिन, कोमल… Continue reading कालिदास / रामधारी सिंह “दिनकर”

कवि / रसवन्ती / रामधारी सिंह “दिनकर”

कवि ऊषा भी युग से खड़ी लिए प्राची में सोने का पानी, सर में मृणाल-तूलिका, तटी में विस्तृत दूर्वा-पट धानी। खींचता चित्र पर कौन? छेड़ती राका की मुसकान किसे? विम्बित होते सुख-दुख, ऐसा अन्तर था मुकुर-समान किसे? दन्तुरित केतकी की छवि पर था कौन मुग्ध होनेवाला? रोती कोयल थी खोज रही स्वर मिला संग रोनेवाला।… Continue reading कवि / रसवन्ती / रामधारी सिंह “दिनकर”

प्रभाती / रामधारी सिंह “दिनकर”

प्रभाती रे प्रवासी, जाग , तेरे देश का संवाद आया। [१] भेदमय संदेश सुन पुलकित खगों ने चंचु खोली; प्रेम से झुक-झुक प्रणति में पादपों की पंक्ति डोली; दूर प्राची की तटी से विश्व के तृण-तृण जगाता; फिर उदय की वायु का वन में सुपरिचित नाद आया। रे प्रवासी, जाग , तेरे देश का संवाद… Continue reading प्रभाती / रामधारी सिंह “दिनकर”

आश्वासन / रामधारी सिंह “दिनकर”

आश्वासन [१] तृषित! धर धीर मरु में। कि जलती भूमि के उर में कहीं प्रच्छन्न जल हो। न रो यदि आज तरु में सुमन की गन्ध तीखी, स्यात, कल मधुपूर्ण फल हो। [२] नए पल्लव सजीले, खिले थे जो वनश्री को मसृण परिधान देकर; हुए वे आज पीले, प्रभंजन भी पधारा कुछ नया वरदान लेकर।… Continue reading आश्वासन / रामधारी सिंह “दिनकर”

समय / रामधारी सिंह “दिनकर”

समय जर्जरवपुष्‌! विशाल! महादनुज! विकराल! भीमाकृति! बढ़, बढ़, कबन्ध-सा कर फैलाए; लील, दीर्घ भुज-बन्ध-बीच जो कुछ आ पाए। बढ़, बढ़, चारों ओर, छोड़, निज ग्रास न कोई, रह जाए अविशिष्ट सृष्टि का ह्रास न कोई। भर बुभुक्षु! निज उदर तुच्छतम द्रव्य-निकर से, केवल, अचिर, असार, त्याज्य, मिथ्या, नश्वर से; सब खाकर भी हाय, मिला कितना… Continue reading समय / रामधारी सिंह “दिनकर”

मरण / रामधारी सिंह “दिनकर”

मरण लगी खेलने आग प्रकट हो थी विलीन जो तन में; मेरे ही मन के पाहुन आये मेरे आँगन में। बन्ध काट बोला यों धीरे मुक्ति-दूत जीवन का- ‘विहग, खोलकर पंख आज उड़ जा निर्बन्ध गगन में।’ पुण्य पर्व में आज सुहागिनि! निज सर्वस्व लुटा दे, माँग रहे मुँह खोल पिया कुछ प्रथम-प्रथम जीवन में।… Continue reading मरण / रामधारी सिंह “दिनकर”

पुरुष-प्रिया / रामधारी सिंह “दिनकर”

पुरुष प्रिया मैं वरुण भानु-सा अरुण भूमि पर उतरा रुद्र-विषाण लिए, सिर पर ले वह्नि-किरीट दीप्ति का तेजवन्त धनु-बाण लिए। स्वागत में डोली भूमि, त्रस्त भूधर ने हाहाकार किया, वन की विशीर्ण अलकें झकोर झंझा ने जयजयकार किया। नाचती चतुर्दिक घूर्णि चली, मैं जिस दिन चला विजय-पथ पर; नीचे धरणी निर्वाक हुई, सिहरा अशब्द ऊपर… Continue reading पुरुष-प्रिया / रामधारी सिंह “दिनकर”

सावन में / रामधारी सिंह “दिनकर”

सावन में जेठ नहीं, यह जलन हृदय की, उठकर जरा देख तो ले; जगती में सावन आया है, मायाविन! सपने धो ले। जलना तो था बदा भाग्य में कविते! बारह मास तुझे; आज विश्व की हरियाली पी कुछ तो प्रिये, हरी हो ले। नन्दन आन बसा मरु में, घन के आँसू वरदान हुए; अब तो… Continue reading सावन में / रामधारी सिंह “दिनकर”

पावस-गीत / रामधारी सिंह “दिनकर”

दूर देश के अतिथि व्योम में छाए घन काले सजनी, अंग-अंग पुलकित वसुधा के शीतल, हरियाले सजनी! भींग रहीं अलकें संध्या की, रिमझिम बरस रही जलधर, फूट रहे बुलबुले याकि मेरे दिल के छाले सजनी! किसका मातम? कौन बिखेरे बाल आज नभ पर आई? रोई यों जी खोल, चले बह आँसू के नाले सजनी! आई… Continue reading पावस-गीत / रामधारी सिंह “दिनकर”