दिन खनकता है / ओम निश्चल

दिन खनकता है सुबह से शाम कंगन-सा। खुल रहा मौसम हवा में गुनगुनाहट और नरमी धूप हल्के पॉंव करती खिड़कियों पर चहलकदमी खुशबुओं-सी याद ऑंखों में उतरती है तन महकता है सुबह से शाम चंदन-सा। मुँह अँधेरे छोड़ कर अपने बसेरे अब यहॉं तब वहॉं चिड़ियॉं टहलती हैं दीठ फेरे तितलियों-से क्षण पकड़ में पर… Continue reading दिन खनकता है / ओम निश्चल

भीतर एक नदी बहती है / ओम निश्चल

चंचल हिरनी बनी डोलती मन के वन में बाट जोहती, वैसे तो वह चुप रहती है भीतर एक नदी बहती है। सन्नाटे का मौन समझती इच्छाओं का मौन परखती सॉंसों के सरगम से निकले प्राणों का संगीत समझती तन्वंगी, कोकिलकंठी है पीड़ाओं की चिरसंगी है अपने निपट अकेलेपन के वैभव में वह खुश रहती है… Continue reading भीतर एक नदी बहती है / ओम निश्चल

यह वेला प्‍यार की / ओम निश्चल

पूजन आराधन की अर्चन नीराजन की स्वस्तिपूर्ण जीवन के सुखमय आवाहन की यह वेला सपनों के मोहक विश्राम की। यह वेला शाम की।। यह वेला जीत की यह वेला हार की यह वेला शब्दों के नख-शिख श्रृंगार की दिन भर की मेहनत के बेहतर परिणाम की। यह वेला शाम की।। यह वेला गीत की यह… Continue reading यह वेला प्‍यार की / ओम निश्चल

नया जनम ले रही है चाहत / ओम निश्चल

ये सर्द मौसम, ये शोख लम्हे फ़िजा में आती हुई सरसता, खनक-भरी ये हँसी कि जैसे क्षितिज में चमके हों मेघ सहसा । हुलस के आते हवा के झोंके धुएँ के फाहे रुई के धोखे कहीं पे सूरज बिलम गया है कोई तो है, जो है राह रोके, किसी के चेहरे का ये भरम है… Continue reading नया जनम ले रही है चाहत / ओम निश्चल

चारो तरफ़ सवाल / ओम निश्चल

चारो तरफ सवाल समय के भटके हुए चरण, कौन हल कर इतने सारे उलझे समीकरण । गश्त कर रहे नियमों के अनुशासन के घोड़े सत्ता के सुख में डूबी कुर्सियॉं कौन छोड़ें सिंहासन तक नहीं पहुँचती आदम की चीख़ें दु:शासन के हाथ हो रहा जिसका चीरहरण ।। चेहरों पर जिनके नक़ाब दिखता कुछ उन्हें नहीं… Continue reading चारो तरफ़ सवाल / ओम निश्चल

बदला देश चरागाहों मे / ओम निश्चल

बदला देश चरागाहों मे अब कैसी पाबन्दी ख़ुद के लिए समूची धरती ग़ैरों पर हदबन्दी निज वेतन भत्तों के बिल पर सहमति दिखती आई जनता के मसले पर संसद खेले छुपम-छुपाई देशधर्म जनहित की बातें आज हुईं बेमानी सड़कों पर हो रही मान -मूल्यों की चिन्दी-चिन्दी शस्य श्यामला धरती का यह कैसा शील हरण उपजाऊ… Continue reading बदला देश चरागाहों मे / ओम निश्चल

संबंधों की अलगनियों पर / ओम निश्चल

किसिम किसिम के संबोधन के महज दिखावे हैं संबंधों की अलगनियों पर सबके दावे हैं । दुर्घटना की आशंकाएँ जैसे जहाँ-तहाँ कुशल-क्षेम की तहकी़कातें होती रोज़ यहाँ अपनेपन की गंध तनिक हो इनमें मुमकिन है पर ये रटे-रटाए जुमले महज छलावे हैं । घर दफ़्तर हर जगह दीखते बाँहें फैलाए होठों पर मुस्कानें ओढ़े भीड़ों… Continue reading संबंधों की अलगनियों पर / ओम निश्चल

लिख रहे हैं लोग कविताएँ / ओम निश्चल

भर गया तेज़ाब-सा कोई ख़ुशनुमा माहौल में आकर । नींद में हर वक़्त चुभता है आँधियों का शोर- सन्नाटा कटघरों में ज्यों- पड़े सोए क़ैदियों की पीठ पर चाँटा तैरता दु:स्वप्न-सा हर दृश्य पुतलियों के ताल में अक्सर । सड़क पर मुस्तैद संगीनें– बंद अपने ही घरों में हम आदमी की शक़्ल में क़ातिल कौन… Continue reading लिख रहे हैं लोग कविताएँ / ओम निश्चल

यह वेला शाम की / ओम निश्चल

पूजन आराधन की अर्चन नीराजन की स्वस्तिपूर्ण जीवन के सुखमय आवाहन की यह वेला सपनों के मोहक विश्राम की यह वेला शाम की यह वेला जीत की यह वेला हार की यह वेला शब्दों के नख-शिख शृंगार की दिन भर की मेहनत के बेहतर परिणाम की यह वेला शाम की यह वेला गीत की यह… Continue reading यह वेला शाम की / ओम निश्चल

नदी का छोर / ओम निश्चल

यह खुलापन यह हँसी का छोर मन को बाँधता है । सामने फैला नदी का छोर मन को बाँधता है । बादलों के व्यूह में भटकी हुई मद्धिम दुपहरी कौंध जाती बिजलियों-सी आँख में छवियाँ छरहरी गुनगुनाती घाटियों का शोर मन को बाँधता है । सामने फैला नदी का छोर मन को बाँधता है ।… Continue reading नदी का छोर / ओम निश्चल