एक वृक्ष मेरे हाथों में समाविष्ट हो गया है मेरी बाँहों में अन्दर-अन्दर वृक्ष रस चढ़ रहा है वृक्ष मेरे वक्ष में उग गया है अधोमुखी, डालें मुझमें से उग रही हैं-बाँहों की तरह वृक्ष वह तुम हो तुम हो हरी काई तुम हो वायलेट के फूल जिन पर हवा लहराती है एक शिशु-और इतने… Continue reading एक लड़की / एज़रा पाउण्ड / धर्मवीर भारती
Category: Dharmveer Bharti
गोदना / वालेस स्टीवेन्स / धर्मवीर भारती
रोशनी मकड़ी है जल पर रेंगती है बर्फ़ के किनारों पर तुम्हारी पलकों के तले और वहाँ अपना जाला बुनती है अपने दो जाले तुम्हारे नेत्रों के जाले हिलगे हैं, तुम्हारे माँस और अस्थियों से जैसे छत की कड़ियों या घासों से तुम्हारे नेत्रों के डोरे हैं जल की सतह पर बर्फ़ के छोरों पर।
कनुप्रिया (सृष्टि-संकल्प – आदिम भय)
अगर यह निखिल सृष्टि मेरा ही लीलातन है तुम्हारे आस्वादन के लिए- अगर ये उत्तुंग हिमशिखर मेरे ही – रुपहली ढलान वाले गोरे कंधे हैं – जिन पर तुम्हारा गगन-सा चौड़ा और साँवला और तेजस्वी माथा टिकता है अगर यह चाँदनी में हिलोरें लेता हुआ महासागर मेरे ही निरावृत जिस्म का उतार-चढ़ाव है अगर ये… Continue reading कनुप्रिया (सृष्टि-संकल्प – आदिम भय)
कनुप्रिया (सृष्टि-संकल्प – केलिसखी)
आज की रात हर दिशा में अभिसार के संकेत क्यों हैं? हवा के हर झोंके का स्पर्श सारे तन को झनझना क्यों जाता है? और यह क्यों लगता है कि यदि और कोई नहीं तो यह दिगन्त-व्यापी अँधेरा ही मेरे शिथिल अधखुले गुलाब-तन को पी जाने के लिए तत्पर है और ऐसा क्यों भान होने… Continue reading कनुप्रिया (सृष्टि-संकल्प – केलिसखी)
कनुप्रिया (इतिहास – विप्रलब्धा)
बुझी हुई राख, टूटे हुए गीत, बुझे हुए चाँद, रीते हुए पात्र, बीते हुए क्षण-सा – – मेरा यह जिस्म कल तक जो जादू था, सूरज था, वेग था तुम्हारे आश्लेष में आज वह जूड़े से गिरे हुए बेले-सा टूटा है, म्लान है दुगुना सुनसान है बीते हुए उत्सव-सा, उठे हुए मेले-सा- मेरा यह जिस्म… Continue reading कनुप्रिया (इतिहास – विप्रलब्धा)
कनुप्रिया (इतिहास – सेतु : मैं)
नीचे की घाटी से ऊपर के शिखरों पर जिस को जाना था वह चला गया – हाय मुझी पर पग रख मेरी बाँहों से इतिहास तुम्हें ले गया! सुनो कनु, सुनो क्या मैं सिर्फ एक सेतु थी तुम्हारे लिए लीलाभूमि और युद्धक्षेत्र के अलंघ्य अन्तराल में! अब इन सूने शिखरों, मृत्यु-घाटियों में बने सोने के… Continue reading कनुप्रिया (इतिहास – सेतु : मैं)
कनुप्रिया (इतिहास: उसी आम के नीचे)
उस तन्मयता में तुम्हारे वक्ष में मुँह छिपाकर लजाते हुए मैंने जो-जो कहा था पता नहीं उसमें कुछ अर्थ था भी या नहीं: आम्र-मंजरियों से भरी माँग के दर्प में मैंने समस्त जगत् को अपनी बेसुधी के एक क्षण में लीन करने का जो दावा किया था – पता नहीं वह सच था भी या… Continue reading कनुप्रिया (इतिहास: उसी आम के नीचे)
कनुप्रिया (इतिहास: अमंगल छाया)
घाट से आते हुए कदम्ब के नीचे खड़े कनु को ध्यानमग्न देवता समझ, प्रणाम करने जिस राह से तू लौटती थी बावरी आज उस राह से न लौट उजड़े हुए कुंज रौंदी हुई लताएँ आकाश पर छायी हुई धूल क्या तुझे यह नहीं बता रहीं कि आज उस राह से कृष्ण की अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ… Continue reading कनुप्रिया (इतिहास: अमंगल छाया)
कनुप्रिया (इतिहास: एक प्रश्न)
अच्छा, मेरे महान् कनु, मान लो कि क्षण भर को मैं यह स्वीकार लूँ कि मेरे ये सारे तन्मयता के गहरे क्षण सिर्फ भावावेश थे, सुकोमल कल्पनाएँ थीं रँगे हुए, अर्थहीन, आकर्षक शब्द थे – मान लो कि क्षण भर को मैं यह स्वीकार कर लूँ कि पाप-पुण्य, धर्माधर्म, न्याय-दण्ड क्षमा-शील वाला यह तुम्हारा युद्ध… Continue reading कनुप्रिया (इतिहास: एक प्रश्न)
कनुप्रिया (इतिहास: शब्द – अर्थहीन)
पर इस सार्थकता को तुम मुझे कैसे समझाओगे कनु? शब्द, शब्द, शब्द……. मेरे लिए सब अर्थहीन हैं यदि वे मेरे पास बैठकर मेरे रूखे कुन्तलों में उँगलियाँ उलझाए हुए तुम्हारे काँपते अधरों से नहीं निकलते शब्द, शब्द, शब्द……. कर्म, स्वधर्म, निर्णय, दायित्व…….. मैंने भी गली-गली सुने हैं ये शब्द अर्जुन ने चाहे इनमें कुछ भी… Continue reading कनुप्रिया (इतिहास: शब्द – अर्थहीन)