पतझड़ के पीले पत्तों ने / भगवतीचरण वर्मा

पतझड़ के पीले पत्तों ने प्रिय देखा था मधुमास कभी; जो कहलाता है आज रुदन, वह कहलाया था हास कभी; आँखों के मोती बन-बनकर जो टूट चुके हैं अभी-अभी सच कहता हूँ, उन सपनों में भी था मुझको विश्वास कभी । आलोक दिया हँसकर प्रातः अस्ताचल पर के दिनकर ने; जल बरसाया था आज अनल… Continue reading पतझड़ के पीले पत्तों ने / भगवतीचरण वर्मा

देखो-सोचो-समझो / भगवतीचरण वर्मा

देखो, सोचो, समझो, सुनो, गुनो औ’ जानो इसको, उसको, सम्भव हो निज को पहचानो लेकिन अपना चेहरा जैसा है रहने दो, जीवन की धारा में अपने को बहने दो तुम जो कुछ हो वही रहोगे, मेरी मानो । वैसे तुम चेतन हो, तुम प्रबुद्ध ज्ञानी हो तुम समर्थ, तुम कर्ता, अतिशय अभिमानी हो लेकिन अचरज… Continue reading देखो-सोचो-समझो / भगवतीचरण वर्मा

तुम अपनी हो, जग अपना है / भगवतीचरण वर्मा

तुम अपनी हो, जग अपना है किसका किस पर अधिकार प्रिये फिर दुविधा का क्या काम यहाँ इस पार या कि उस पार प्रिये। देखो वियोग की शिशिर रात आँसू का हिमजल छोड़ चली ज्योत्स्ना की वह ठण्डी उसाँस दिन का रक्तांचल छोड़ चली। चलना है सबको छोड़ यहाँ अपने सुख-दुख का भार प्रिये, करना… Continue reading तुम अपनी हो, जग अपना है / भगवतीचरण वर्मा

मैं कब से ढूँढ़ रहा हूँ / भगवतीचरण वर्मा

मैं कब से ढूँढ़ रहा हूँ अपने प्रकाश की रेखा तम के तट पर अंकित है निःसीम नियति का लेखा देने वाले को अब तक मैं देख नहीं पाया हूँ, पर पल भर सुख भी देखा फिर पल भर दुख भी देखा। किस का आलोक गगन से रवि शशि उडुगन बिखराते? किस अंधकार को लेकर… Continue reading मैं कब से ढूँढ़ रहा हूँ / भगवतीचरण वर्मा

तुम मृगनयनी / भगवतीचरण वर्मा

तुम मृगनयनी, तुम पिकबयनी तुम छवि की परिणीता-सी, अपनी बेसुध मादकता में भूली-सी, भयभीता सी । तुम उल्लास भरी आई हो तुम आईं उच्छ्‌वास भरी, तुम क्या जानो मेरे उर में कितने युग की प्यास भरी । शत-शत मधु के शत-शत सपनों की पुलकित परछाईं-सी, मलय-विचुम्बित तुम ऊषा की अनुरंजित अरुणाई-सी ; तुम अभिमान-भरी आई… Continue reading तुम मृगनयनी / भगवतीचरण वर्मा

तुम सुधि बन-बनकर बार-बार / भगवतीचरण वर्मा

तुम सुधि बन-बनकर बार-बार क्यों कर जाती हो प्यार मुझे? फिर विस्मृति बन तन्मयता का दे जाती हो उपहार मुझे। मैं करके पीड़ा को विलीन पीड़ा में स्वयं विलीन हुआ अब असह बन गया देवि, तुम्हारी अनुकम्पा का भार मुझे। माना वह केवल सपना था, पर कितना सुन्दर सपना था जब मैं अपना था, और… Continue reading तुम सुधि बन-बनकर बार-बार / भगवतीचरण वर्मा

आज मानव का / भगवतीचरण वर्मा

आज मानव का सुनहला प्रात है, आज विस्मृत का मृदुल आघात है; आज अलसित और मादकता-भरे, सुखद सपनों से शिथिल यह गात है; मानिनी हँसकर हृदय को खोल दो, आज तो तुम प्यार से कुछ बोल दो । आज सौरभ में भरा उच्छ्‌वास है, आज कम्पित-भ्रमित-सा बातास है; आज शतदल पर मुदित सा झूलता, कर… Continue reading आज मानव का / भगवतीचरण वर्मा

आज शाम है बहुत उदास / भगवतीचरण वर्मा

आज शाम है बहुत उदास केवल मैं हूँ अपने पास । दूर कहीं पर हास-विलास दूर कहीं उत्सव-उल्लास दूर छिटक कर कहीं खो गया मेरा चिर-संचित विश्वास । कुछ भूला सा और भ्रमा सा केवल मैं हूँ अपने पास एक धुंध में कुछ सहमी सी आज शाम है बहुत उदास । एकाकीपन का एकांत कितना… Continue reading आज शाम है बहुत उदास / भगवतीचरण वर्मा

कुछ सुन लें, कुछ अपनी कह लें / भगवतीचरण वर्मा

कुछ सुन लें, कुछ अपनी कह लें। जीवन-सरिता की लहर-लहर, मिटने को बनती यहाँ प्रिये संयोग क्षणिक, फिर क्या जाने हम कहाँ और तुम कहाँ प्रिये। पल-भर तो साथ-साथ बह लें, कुछ सुन लें, कुछ अपनी कह लें। आओ कुछ ले लें औ’ दे लें। हम हैं अजान पथ के राही, चलना जीवन का सार… Continue reading कुछ सुन लें, कुछ अपनी कह लें / भगवतीचरण वर्मा

स्मृतिकण / भगवतीचरण वर्मा

क्या जाग रही होगी तुम भी? निष्ठुर-सी आधी रात प्रिये! अपना यह व्यापक अंधकार, मेरे सूने-से मानस में, बरबस भर देतीं बार-बार; मेरी पीडाएँ एक-एक, हैं बदल रहीं करवटें विकल; किस आशंका की विसुध आह! इन सपनों को कर गई पार मैं बेचैनी में तडप रहा; क्या जाग रही होगी तुम भी? अपने सुख-दुख से… Continue reading स्मृतिकण / भगवतीचरण वर्मा