जवाब / अंजू शर्मा

किसी का कवि होना क्या इतना बड़ा अपराध है, कि वह पाता रहे सजा अनकिये कृत्यों की दर्द वहां भी होता है नहीं मिलते जहाँ चोट के निशान, वेदना वहां भी होती है जहाँ मांगी जाती है माफ़ी अपने ही कातिलों से, घुटन वहां भी होती है, जब प्रतिकार को नहीं मिलती इज़ाज़त मुंह खोलने… Continue reading जवाब / अंजू शर्मा

एक स्त्री आज जाग गयी है / अंजू शर्मा

(1) रात की कालिमा कुछ अधिक गहरी थी, डूबी थी सारी दिशाएं आर्तनाद में, चक्कर लगा रही थी सब उलटबांसियां, चिंता में होने लगी थी तानाशाहों की बैठकें, बढ़ने लगा था व्यवस्था का रक्तचाप, घोषित कर दिया जाना था कर्फ्यू, एक स्त्री आज जाग गयी है… (2) कोने में सर जोड़े खड़े थे साम-दाम-दंड-भेद, ऊँची… Continue reading एक स्त्री आज जाग गयी है / अंजू शर्मा

कद / अंजू शर्मा

बौनों के देश में सच के कद को बर्दाश्त करना सबसे बड़ा अपराध था, प्रतिमाओं को खंडित कर कद को छोटा करना ही राष्ट्रीय धर्म था, कालातीत होना ही नियति थी ऐसी सब ऊँचाइयों की जो अहसास दिलाती थी कि वे बौने हैं, हर लकीर के बगल में जब भी खींची जानी चाहिए थी कोई… Continue reading कद / अंजू शर्मा

लड़कियां कितनी जल्दी बूढी हो जाती हैं / अंजू शर्मा

ऐनक के पीछे से झांकती थी चुन्धाती पहाड़ी आँखें, हँसते ही कुछ बंद हो ढक जाती थी पलकों की चिलमन के पीछे, समझाते हुए आचार के मसालों अनुपात मेरे वे रिश्तेदार अम्माजी खो जाया करती थीं अतीत के वैभव में, सोलह साल की अबोध तरुणी बांध दी गयी अड़तालीस के प्रौढ़ के पल्ले, मैं मसालों… Continue reading लड़कियां कितनी जल्दी बूढी हो जाती हैं / अंजू शर्मा

क्षमा / अंजू शर्मा

वह गलत थी, वह भी गलत था, वे दोनों गलत थे, उस अनुचित, निषिद्ध रास्ते पर चलते चलते, एक दिन सजा का मुक़र्रर हुआ, वह पा गयी सजा अपने कुकृत्यों की अप्सरा सी देह पल भर में बदल गयी राख के अवांछित ढेर में, ये तो होना ही था, और पुरुष वह आगे बढ़ गया… Continue reading क्षमा / अंजू शर्मा

जंगल / अंजू शर्मा

(सत्तर के दशक में हुए ‘चिपको आन्दोलन’ पर लिखी गयी पुरस्कृत कविता) वे नहीं थी शिक्षित और बुद्धिजीवी, उनके पास नहीं थी अपने अधिकारों के प्रति सजगता, वे सब आम औरतें थीं, बेहद आम, घर और वन को जीने वाली, वे नहीं जानती थी ग्लोबल वार्मिंग किसे कहते हैं, वे नहीं जानती थी वे बनने… Continue reading जंगल / अंजू शर्मा

तीन सिरों वाली औरत / अंजू शर्मा

मैं अक्सर महसूस करती हूँ उस रागात्मक सम्बन्ध को जो सहज ही जोड़ लेती है एक स्त्री दूसरी स्त्री के साथ, मेरे घर में काम करने वाली एक तमिल महिला धनलक्ष्मी, या मेरे कपडे प्रेस करने वाली रेहाना अक्सर उतर आती हैं मेरे मन में डबडबाई आँखों के रास्ते तब अचानक मैं पाती हूँ मेरे… Continue reading तीन सिरों वाली औरत / अंजू शर्मा

जूते और आदमी / अंजू शर्मा

कहते हैं आदमी की पहचान जूते से होती है आवश्यकता से अधिक घिसे जाने पर स्वाभाविक है दोनों के ही मुंह का खुल जाना, बेहद जरूरी है आदमी का आदमी बने रहना, जैसे जरूरी है जूतों का पांवों में बने रहना, जूते और आदमी दोनों ही एक खास मुकाम पर भूल जाते हैं याददाश्त आगे… Continue reading जूते और आदमी / अंजू शर्मा

जूते सब समझते हैं / अंजू शर्मा

जूते जिनके तल्ले साक्षी होते हैं उस यात्रा के जो तय करते हैं लोगों के पाँव, वे स्कूल के मैदान, बनिए की दुकान और घर तक आती सड़क या फिर दफ्तर का अंतर बखूबी समझते हैं क्योंकि वे वाकिफ हैं उस रक्त के उस भिन्न दबाव से जन्मता है स्कूल, दुकान, घर या दफ्तर को… Continue reading जूते सब समझते हैं / अंजू शर्मा

जूते और विचार / अंजू शर्मा

कभी कभी जूते छोटे हो जाते हैं या कहिये कि पांव बड़े हो जाते हैं, छोटे जूतों में कसमसाते पाँव दिमाग से बाहर आने को आमादा विचारों जैसे होते हैं, दोनों को ही बांधे रखना मुश्किल और गैर-वाजिब है, ये द्वन्द थम जाता है जब खलबली मचाते विचार ढूँढ़ते हैं एक माकूल शक्ल और शांत… Continue reading जूते और विचार / अंजू शर्मा