ये कैसी हवा-ए-ग़म-ओ-आज़ार चली है / ‘हफ़ीज़’ बनारसी

ये कैसी हवा-ए-ग़म-ओ-आज़ार चली है ख़ुद बाद-ए-बहारी भी शरर-बार चली है देखी ही न थी जिस ने शिकस्त आज तक अपनी वो चश्‍म-ए-फसूँ-खेज़ भी दिल हार चली है अब कोई हदीस-ए-क़द-ओ-गेसू नहीं सुनता दुनिया में वो रस्म-ए-रसन-ओ-दार चली है तकता ही नहीं कोई मय ओ जाम की जानिब क्या चाल ये तू ने निगह-ए-यार चली… Continue reading ये कैसी हवा-ए-ग़म-ओ-आज़ार चली है / ‘हफ़ीज़’ बनारसी

ये हादसा भी षहर-ए-निगाराँ में हो गया / ‘हफ़ीज़’ बनारसी

ये हादसा भी शहर-ए-निगाराँ में हो गया बे-चेहरगी की भीड़ में हर चेहरा खो गया जिस को सज़ा मिली थी कि जागे तमात उम्र सुनता हूँ आज मौत की बाँहों में सो गया हरकत किसी में है न हरारत किसी में है क्या शहर था जो बर्फ़ की चट्टान हो गया मैं उस को नफरतों… Continue reading ये हादसा भी षहर-ए-निगाराँ में हो गया / ‘हफ़ीज़’ बनारसी

लब-ए-फ़ुरात वही तिश्‍नगी का मंज़र है / ‘हफ़ीज़’ बनारसी

लब-ए-फ़ुरात वही तिश्‍नगी का मंज़र है वही हुसैन वही क़ातिलों का लश्‍कर है ये किस मक़ाम पे लाई है ज़िंदगी हम को हँसी लबों पे है सीने में ग़म का दफ्तर है यक़ीन किस पे करें किस को दोस्त ठहराएँ हर आस्तीन में पोशीदा कोई ख़ंजर है गिला नहीं मिरे होंटों पे तंग-दस्ती का ख़ुदा… Continue reading लब-ए-फ़ुरात वही तिश्‍नगी का मंज़र है / ‘हफ़ीज़’ बनारसी

जो पर्दो में ख़ुद को छुपाए हुए हैं / ‘हफ़ीज़’ बनारसी

जो पर्दो में ख़ुद को छुपाए हुए हैं क़यामत वही तो उठाए हुए हैं तिरी अंजुमन में जो आए हुए हैं ग़म-ए-दो-जहाँ को भुलाए हुए हैं कोई शाम के वक़्त आएगा लेकिन सहर से हम आँखें बिछाए हुए हैं जहाँ बिजलियाँ ख़ुद अमाँ ढूँडती हैं वहाँ हम नशेमन बनाए हुए हैं ग़ज़ल आबरू है तो… Continue reading जो पर्दो में ख़ुद को छुपाए हुए हैं / ‘हफ़ीज़’ बनारसी

जब तसव्वुर में कोई माह-जबीं होता है / ‘हफ़ीज़’ बनारसी

जब तसव्वुर में कोई माह-जबीं होता है रात होती है मगर दिन का यकीं होता है उफ वो बेदाद इनायत भी तसद्दुक जिस पर हाए वो ग़म जो मसर्रत से हसीं होता है हिज्र की रात फ़ुसूँ-कारी-ए-ज़ुल्मत मत पूछ शमअ् जलती है मगर नूर नहीं होता है दूर तक हम ने जो देखा तो ये… Continue reading जब तसव्वुर में कोई माह-जबीं होता है / ‘हफ़ीज़’ बनारसी

दिल की आवाज़ में आवाज़ मिलाते रहिए / ‘हफ़ीज़’ बनारसी

दिल की आवाज़ में आवाज़ मिलाते रहिए जागते रहिए ज़माने को जगाते रहिए दौलत-ए-इश्‍क़ नहीं बाँध के रखने के लिए इस ख़जाने को जहाँ तक हो लुटाते रहिए ज़िंदगी भी किसी मेहबूब से कुछ कम तो नहीं प्यार है उस से तो फिर नाज़ उठाते रहिए ज़िंदगी दर्द की तस्वीर न बनने पाए बोलते रहिए… Continue reading दिल की आवाज़ में आवाज़ मिलाते रहिए / ‘हफ़ीज़’ बनारसी