मृगनैनी की पीठ पै बेनी लसै, सुख साज सनेह समोइ रही। सुचि चीकनी चारु चुभी चित में, भरि भौन भरी खुसबोई रही॥ कवि ‘गंग’ जू या उपमा जो कियो, लखि सूरति या स्रुति गोइ रही। मनो कंचन के कदली दल पै, अति साँवरी साँपिन सोइ रही॥
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उझकि झरोखे झाँकि परम नरम प्यारी / गँग
उझकि झरोखे झाँकि परम नरम प्यारी , नेसुक देखाय मुख दूनो दुख दै गई । मुरि मुसकाय अब नेकु ना नजरि जोरै , चेटक सो डारि उर औरै बीज बै गई । कहै कवि गंग ऎसी देखी अनदेखी भली , पेखै न नजरि में बिहाल बाल कै गई । गाँसी ऎसी आँखिन सों आँसी आँसी… Continue reading उझकि झरोखे झाँकि परम नरम प्यारी / गँग
फूट गये हीरा की बिकानी कनी हाट हाट / गँग
फूट गये हीरा की बिकानी कनी हाट हाट, काहू घाट मोल काहू बाढ़ मोल को लयो। टूट गई लँका फूट मिल्या जो विभीषन है, रावन समेत बस आसमान को गयो। कहै कवि गँग दुरजोधन से छत्रधारी, तनक मे फूँके तें गुमान बाको नै गयो। फूटे ते नरद उठि जात बाजी चौसर की, आपुस के फूटे… Continue reading फूट गये हीरा की बिकानी कनी हाट हाट / गँग