कल और आज / गजानन माधव मुक्तिबोध

अभी कल तक गालियाँ देते थे तुम्हें हताश खेतिहर, अभी कल तक धूल में नहाते थे गौरैयों के झुंड, अभी कल तक पथराई हुई थी धनहर खेतों की माटी, अभी कल तक दुबके पड़े थे मेंढक, उदास बदतंग था आसमान ! और आज ऊपर ही ऊपर तन गये हैं तुम्हारे तंबू, और आज छमका रही… Continue reading कल और आज / गजानन माधव मुक्तिबोध

जब दुपहरी ज़िन्दगी पर… / गजानन माधव मुक्तिबोध

जब दुपहरी ज़िन्दगी पर रोज़ सूरज एक जॉबर-सा बराबर रौब अपना गाँठता-सा है कि रोज़ी छूटने का डर हमें फटकारता-सा काम दिन का बाँटता-सा है अचानक ही हमें बेखौफ़ करती तब हमारी भूख की मुस्तैद आँखें ही थका-सा दिल बहादुर रहनुमाई पास पा के भी बुझा-सा ही रहा इस ज़िन्दगी के कारख़ाने में उभरता भी… Continue reading जब दुपहरी ज़िन्दगी पर… / गजानन माधव मुक्तिबोध

मेरे जीवन की / गजानन माधव मुक्तिबोध

मेरे जीवन की धर्म तुम्ही– यद्यपि पालन में रही चूक हे मर्म-स्पर्शिनी आत्मीये! मैदान-धूप में– अन्यमनस्का एक और सिमटी छाया-सा उदासीन रहता-सा दिखता हूँ यद्यपि खोया-खोया निज में डूबा-सा भूला-सा लेकिन मैं रहा घूमता भी कर अपने अन्तर में धारण प्रज्ज्वलित ज्ञान का विक्षोभी व्यापक दिन आग बबूला-सा मैं यद्यपि भूला-भूला सा ज्यों बातचीत के… Continue reading मेरे जीवन की / गजानन माधव मुक्तिबोध

भूल-ग़लती / गजानन माधव मुक्तिबोध

भूल-ग़लती आज बैठी है ज़िरहबख्तर पहनकर तख्त पर दिल के, चमकते हैं खड़े हथियार उसके दूर तक, आँखें चिलकती हैं नुकीले तेज पत्थर सी, खड़ी हैं सिर झुकाए सब कतारें बेजुबाँ बेबस सलाम में, अनगिनत खम्भों व मेहराबों-थमे दरबारे आम में। सामने बेचैन घावों की अज़ब तिरछी लकीरों से कटा चेहरा कि जिस पर काँप… Continue reading भूल-ग़लती / गजानन माधव मुक्तिबोध

ब्रह्मराक्षस / गजानन माधव मुक्तिबोध

शहर के उस ओर खंडहर की तरफ़ परित्यक्त सूनी बावड़ी के भीतरी ठण्डे अंधेरे में बसी गहराइयाँ जल की… सीढ़ियाँ डूबी अनेकों उस पुराने घिरे पानी में… समझ में आ न सकता हो कि जैसे बात का आधार लेकिन बात गहरी हो। बावड़ी को घेर डालें खूब उलझी हैं, खड़े हैं मौन औदुम्बर। व शाखों… Continue reading ब्रह्मराक्षस / गजानन माधव मुक्तिबोध

नाश देवता / गजानन माधव मुक्तिबोध

घोर धनुर्धर, बाण तुम्हारा सब प्राणों को पार करेगा, तेरी प्रत्यंचा का कंपन सूनेपन का भार हरेगा हिमवत, जड़, निःस्पंद हृदय के अंधकार में जीवन-भय है तेरे तीक्ष्ण बाणों की नोकों पर जीवन-संचार करेगा । तेरे क्रुद्ध वचन बाणों की गति से अंतर में उतरेंगे, तेरे क्षुब्ध हृदय के शोले उर की पीड़ा में ठहरेंगे… Continue reading नाश देवता / गजानन माधव मुक्तिबोध

मृत्यु और कवि / गजानन माधव मुक्तिबोध

घनी रात, बादल रिमझिम हैं, दिशा मूक, निस्तब्ध वनंतर व्यापक अंधकार में सिकुड़ी सोयी नर की बस्ती भयकर है निस्तब्ध गगन, रोती-सी सरिता-धार चली गहराती, जीवन-लीला को समाप्त कर मरण-सेज पर है कोई नर बहुत संकुचित छोटा घर है, दीपालोकित फिर भी धुंधला, वधू मूर्छिता, पिता अर्ध-मृत, दुखिता माता स्पंदन-हीन घनी रात, बादल रिमझिम हैं,… Continue reading मृत्यु और कवि / गजानन माधव मुक्तिबोध

कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं / भाग 4 / गजानन माधव मुक्तिबोध

सामाजिक महत्व की गिलौरियाँ खाते हुए, असत्य की कुर्सी पर आराम से बैठे हुए, मनुष्य की त्वचाओं का पहने हुए ओवरकोट, बंदरों व रीछों के सामने नई-नई अदाओं से नाच कर झुठाई की तालियाँ देने से, लेने से, सफलता के ताले ये खुलते हैं, बशर्ते कि इच्छा हो सफलता की, महत्वाकांक्षा हो अपने भी बरामदे… Continue reading कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं / भाग 4 / गजानन माधव मुक्तिबोध

कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं / भाग 3 / गजानन माधव मुक्तिबोध

तुम्हारे पास, हमारे पास, सिर्फ़ एक चीज़ है – ईमान का डंडा है, बुद्धि का बल्लम है, अभय की गेती है हृदय की तगारी है – तसला है नए-नए बनाने के लिए भवन आत्मा के, मनुष्य के, हृदय की तगारी में ढोते हैं हमीं लोग जीवन की गीली और महकती हुई मिट्टी को। जीवन-मैदानों में… Continue reading कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं / भाग 3 / गजानन माधव मुक्तिबोध

कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं / भाग 2 / गजानन माधव मुक्तिबोध

मुझको डर लगता है, मैं भी तो सफलता के चंद्र की छाया मे घुग्घू या सियार या भूत नहीं कहीं बन जाऊँ। उनको डर लगता है आशंका होती है कि हम भी जब हुए भूत घुग्घू या सियार बने तो अभी तक यही व्यक्ति ज़िंदा क्यों? उसकी वह विक्षोभी सम्पीड़ित आत्मा फिर जीवित क्यों रहती… Continue reading कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं / भाग 2 / गजानन माधव मुक्तिबोध