मुझको घर-बार बुलाती हैं वो बूढ़ी आँखें / वर्षा सिंह

मुझको घर-बार बुलाती हैं वो बूढ़ी आँखें ।
दे के थपकी-सी सुलाती हैं वो बूढ़ी आँखें ।

जब कभी पाँव में चुभ जाते हैं काँटे मेरे
बोझ पीड़ा का उठाती हैं वो बूढ़ी आँखें ।

वही चौपाई, वही कलमा, वही हैं वाणी
अक्स जन्नत का दिखाती हैं वो बूढ़ी आँखें ।

कौन कहता है कि उनमें है नएपन की कमी
फूल खुशियों के खिलाती हैं वो बूढ़ी आँखें ।

ज़िन्दगी का ये सफ़र यूँ ही नहीं कटता है
थाम कर हाथ चलाती हैं वो बूढ़ी आँखें ।

जब भटकता है युवा मन किसी गलियारे में
राह अनुभव की दिखाती हैं वो बूढ़ी आँखें ।

चाह कर भी मैं कभी दूर नहीं हो पाती
बूँद ‘वर्षा’ की सजाती हैं वो बूढ़ी आँखें ।