फ़िदा अल्लाह की ख़िल्क़त पे जिस का जिस्म ओ जाँ होगा / पंडित बृज मोहन दातातर्या कैफ़ी

फ़िदा अल्लाह की ख़िल्क़त पे जिस का जिस्म ओ जाँ होगा
वही अफ़्साना-ए-हस्ती का मीर-ए-दास्ताँ होगा

यक़ीं जिस का कलाम-ए-क़ुद्स अज्र-उल-मुहसेनीं पर हो
निक-कारी का उस की क़ाएल इक दिन कुल जहाँ होगा

हयात-ए-जावेदनी पाएगा वो इश्क़-ए-सादिक़ में
जो अनक़ा की तरह मादूम होगा बे-निशाँ होगा

सफ़र राह-ए-मोहब्बत का चहल-क़दमी समझते हो
अभी देखोगे तुम इक इक क़दम पर हफ़्त-ख्वाँ होगा

हमें गुलज़ार-ए-जन्नत है अज़ीज़ ओ बाग़-ए-दिल अपना
समझते हो की जाँ-परवर है सहन-ए-गुलिस्ताँ होगा

जो ईसार और हमदर्दी शिआर अपना बना लोगे
तो काँटा भी तुम्हें रश्क-ए-गुल-ए-बाग़-ए-जनाँ होगा

ये क़िस्सा शम्मा ओ परवाना का बस मा-वशा तक है
वो जाएगा बज़्म-आरा तो फिर कोई कहाँ होगा

अदा-ए-फ़र्ज़ बरहक़ पर खपा दो दोस्तो जाँ तक
ये वो सौदा है आख़िर को नहीं जिस में ज़ियाँ होगा

अज़ल से वाइज़ों के क़ौल दुनिया सुनती आई है
अमल का वक़्त भी कोई कभी ऐ मेहर-बाँ होगा

तग़ाफुल और सितम के बदले है अंदाज़ दिल-दारी
सँभाल ऐ शौक़ बे-पायाँ तेरा अब इम्तिहाँ होगा

तहीदस्तान-ए-क़िस्मत को तो दम लेना क़यामत है
यहाँ कुछ हो गया इंसाफ़ आशिक़ जो वहाँ होगा

न समझो खेल इस को बज़्म ‘कैफ़ी’ में वो जादू है
यहाँ गर ज़ाहिद ख़ुश्क आएगा पीर-ए-मुग़ाँ होगा