नींद / अली सरदार जाफ़री

अपने बच्चों की पहली सालगिरह पर
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रात ख़ूबसूरत है
नींद क्यों नहीं आती

दिन की ख़श्मगीं नज़रें
खो गयीं सियाही में
आहनी कडो़ का शोर
बेडि़यों की झनकारें
कै़दियों की साँसों की
तुन्दो-तेज़ आवाज़ें
जेलरों की बदकारी
गालियों की बौछारें
बेबसी की खा़मोशी
खा़मुशी की फ़रयादें
तहनशीं अँधेरे में
शब की शोख़ दोशीज़ा१
खा़रदार तारों को
आहनी हिसारों२ को
पार करके आयी है
भर के अपने आँचल में
जंगलों की खु़शबूएँ
ठ्ण्डकें पहाडो़ की
मेरे पास लायी है

नीलगूँ जवाँ सीनः
नीलगूँ जवाँ बाँहें
कहकशाँ३ की पेशानी
नीम चाँद का जूड़ा
मख़मली अँधेरे का
पैरहन लरज़ता है
वक़्त कि सिया ज़ुल्फ़ें
ख़ामोशी के शानों पर४
ख़म-ब-ख़म महकती हैं
और ज़मीं के होंटों पर
नर्म शबनमी बोसे
मोतियों के दाँतों से
खिलखिला के हँसते हैं
रात खू़बसूरत है
नींद क्यों नही आती

रात पेंग लेती है
चाँदनी के झूले में
आसमान पर तारे
नन्हे-नन्हे हाथों से
बुन रहे हैं जादू-सा
झींगुरों की आवाज़ें
कह रही है अफ़साना
दूर जेल के बाहर
बज रही है शहनाई
रेल अपने पहियों से
लोरियाँ सुनाती है
रात खू़बसूरत है
नींद क्यों नहीं आती

रोज़ रात को यूँ ही
नींद मेरी आँखों से
बेवफ़ाई करती है
मुझको छोड़कर तन्हा
जेल से निकलती है
बम्बई की बस्ती में
मेरे घर का दरवाज़ा
जाके खटखटाती है
एक नन्हे बच्चे की
अँखडियों के बचपन में
मीठे-मीठे ख़्वाबों का
शहद घोल देती है
इक हसीं परी बनकर
लोरियाँ सुनाती है
पालना हिलाती है
सेंट्रल जेल, नासिकः अप्रैल १९५०

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१.जवान और अल्हड़ लड़की २.लोहे के घेरे ३.आकाश-गंगा ४.खा़मोशी के कन्धों पर।

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