जब सजीले ख़िराम करते हैं / ‘फ़ायज़’ देहलवी

जब सजीले ख़िराम करते हैं
हर तरफ़ क़त्ल-ए-आम करते हैं

मुख दिखा छब बना लिबास सँवार
आशिकों को ग़ुलाम करते हैं

ये चकोरे मिल उस सिरीजन सूँ
रात दिन अपना काम करते हैं

यार को आशिक़ान-साहब-फ़न
एक देखे में राम करते हैं

गर्दिश-ए-चश्‍म सूँ सिरीजन सब
बज़्म में कार-ए-जाम करते हैं

ये नहीं नेक तौर ख़ूबाँ के
आशनाई को आम करते हैं

जी को करते हैं आशिक़ाँ तसलीम
जब वो हँस कर सलाम करते हैं

मुर्ग़-ए-दिल के शिकार करने कूँ
जुल्फ़ ओ काकुल को दाम करते हैं

शोख़ मेरा बुताँ में जब जावे
उस को अपना इमाम करते हैं

ख़ूब-रू आशना हैं ‘फाएज़’ के
मिल सबी राम राम करते हैं

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