जब तसव्वुर में कोई माह-जबीं होता है / ‘हफ़ीज़’ बनारसी

जब तसव्वुर में कोई माह-जबीं होता है
रात होती है मगर दिन का यकीं होता है

उफ वो बेदाद इनायत भी तसद्दुक जिस पर
हाए वो ग़म जो मसर्रत से हसीं होता है

हिज्र की रात फ़ुसूँ-कारी-ए-ज़ुल्मत मत पूछ
शमअ् जलती है मगर नूर नहीं होता है

दूर तक हम ने जो देखा तो ये मालूम हुआ
कि वो इसाँ की रग-ए-जाँ से क़रीं होता है

इश्‍क़ में मारका-ए-क़ल्ब-ओ-नज़र क्या कहिए
चोट लगती है कहीं दर्द कहीं होता हे

हम ने देखे हैं वो आलम भी मोहब्बत में ‘हफीज़’
आस्ताँ ख़ुद जहाँ मुश्‍ताक-ए-जबीं होता है

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