करवाचौथ का त्यौहार / अंजना भट्ट

दुल्हन का सिंगार और किसी की आँखों में बसने का विचार
पूरा ही ना हो पाया…
और इस दिलो-जान से प्यारे दिन की वीरानी
मेरे रग रग में एक ठंडे लोहे की तरह उतर गयी.

मुझे भी विकल करती है उन कंगनों की झंकार
जिनसे मैंने अपनी उदास बाहें नहीं सजाई.
मुझे भी सताती हैं मेहंदी की वो लाल मदमाती लकीरें
जो मेरी आकांक्षित हथेलियों पर नहीं लहराईं.
मुझे भी आमन्त्रण देती है उन पायलों और बिछूओं की कसमसाहट
जो मेरे तन मन को कस के बाँध ही ना पाई.
मुझे भी श्राप देते हैं मेरी चिरंतन सूनी सेज के वो फूल
जिनके अंगारों में मैं एक तड़पती बिजली सी दहक ही ना पाई.

और फिर पल बीते….और फिर धीरे धीरे…
मै इक मचलती दरिया ना रह कर निपट सूनी मिटटी से भरी दरिया में परिवर्तित हो गयी
रस के सब धारे तो सूख गए पर….
मै अभी जिन्दा हूँ…….

इस मन का क्या करुँ?
कहाँ ले जाऊं?
कैसे दिलासा दूँ?
क्या बहाना बनाऊं?
इस मन की यंत्रणा किसे समझाऊँ?

जो हर वर्ष शोक मनाता है अपने टूटे दिल का,
जो अब किसी तरह की उम्मीद भी नहीं रखता.
जो अब किसी बंधन में बंधने को भी नहीं तरसता,
जो अब चाहता है तो सिर्फ परमात्मा से आत्मा के मिलन का रिश्ता.

जो बस अब यही चाहता है कि..
जो बदल ना पाया उसे सहने की हिम्मत जुटा ले
जो विरह के दुःख मिले उन्हें अपने आँचल में छुपा ले
और चुप चाप रो ले,..आँसू बहा ले….

कुछ ऐसे आँसू जो बहें तो शर्मिन्दगी ना महसूस हो
कुछ ऐसे आँसू जो बहें तो दिल को दिलासा दें
कुछ ऐसे आँसू जो बहें तो मन को राहत दें
कुछ ऐसे आँसू जो बहें तो आत्मा को निखार दें
कुछ ऐसे आँसू जो बहें तो अगले जनम का आईना निखार दें

जिस आइने में मैं फिर से खुद को देखूं …ऐसे कि….

फिर एक रंग बिरंगी पंखों वाली तितली
जो इन्द्र धनुष तक उड़ सकने की क्षमता रखे
फिर एक मचलती खिलखिलाती दरिया
जो इस बंजर धरती को अपने रस से उबार दे
फिर एक सोलह श्रृंगार युत दुल्हन
पहने सिंदूर, पायल, बिछिया, कंगन, और
अपने साँवरे की सेज गुंजार दे

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *