कभी यूँ भी आ मेरी आँख में / बशीर बद्र

कभी यूँ भी आ मेरी आँख में, कि मेरी नज़र को ख़बर न हो
मुझे एक रात नवाज़ दे, मगर उसके बाद सहर न हो

वो बड़ा रहीमो-करीम है, मुझे ये सिफ़त भी अता करे
तुझे भूलने की दुआ करूँ तो मेरी दुआ में असर न हो

मेरे बाज़ुओं में थकी-थकी, अभी महवे- ख़्वाब है चाँदनी
न उठे सितारों की पालकी, अभी आहटों का गुज़र न हो

ये ग़ज़ल है जैसे हिरन की आँखों में पिछली रात की चाँदनी
न बुझे ख़राबे की रौशनी, कभी बे-चिराग़ ये घर न हो

कभी दिन की धूप में झूम कर, कभी शब के फूल को चूम कर
यूँ ही साथ-साथ चले सदा, कभी ख़त्म अपना सफ़र न हो

मेरे पास मेरे हबीब आ, ज़रा और दिल के करीब आ
तुझे धड़कनों में बसा लूँ मैं, कि बिछड़ने का कभी डर न हो

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