ऐ मेहर-बाँ है गर यही सूरत निबाह की / ‘ज़हीर’ देहलवी

ऐ मेहर-बाँ है गर यही सूरत निबाह की
बाज़ आए दिल लगाने से तौबा गुनाह की

उल्टे गिले वो करते हैं क्यूँ तुम ने चाह की
क्या ख़ूब दाद दी है दिल-ए-दाद-ख़्वाह की

क़ातिल की शक्ल देख के हँगाम-ए-बाज़-पुर्स
नियत बदल गई मेरे इक इक गवाह की

मेरी तुम्हारी शक्ल ही कह देगी रोज़-ए-हश्र
कुछ काम गुफ़्तुगू का न हाजत गवाह की

ऐ शैख़ अपने अपने अक़ीदे का फ़र्क़ है
हुरमत जो दैर की है वही ख़ानक़ाह की

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