अक्र चहार का मक़बरा / एज़रा पाउण्ड / धर्मवीर भारती

मैं तुम्हारी आत्मा हूँ, निकुपतिस्, मैंने निगरानी की है
पिछले पचास लाख वर्षों से, और तुम्हारी मुर्दा आँखें
हिलीं नहीं, न मेरे रति-संकेतों को समझ सकीं
और तुम्हारे कृश अंग, जिसमें मैं धधकती हुई चलती थी,
अब मेरे या अन्य किसी अग्निवर्णी वस्तु के स्पर्श से धधक नहीं उठते !
देखो तुम्हारे सिरहाने तकिया लगाने को घास उग आयी है
और चूमती है तुम्हें अपनी अगणित पल्लव-जिह्वाओं से
पर मैं तुम्हारे चुम्बनों से वंचित हूँ
मैं दीवार के स्वर्णाक्षर पढ़ चुकी हूँ
और उनके प्रतीकों पर अपनी चिन्तना थका चुकी हूँ
और इस मक़बरे में अब कोई भी नयापन शेष नहीं रहा
मैंने तुम्हारा बहुत ख़याल रक्खा है।
देखो मैंने मद्य-मंजूषाओं के
मोम-चिह्न नहीं तोड़े कि
तुम कहीं जागकर मदिरा की एक घूँट न पीना चाहो
और तुम्हारे समस्त वस्त्रों की शिक़नें मैं ठीक करती रही हूँ
मैं कैसे भूलूँ ओ निर्मोही !
कुछ ही दिनों पहले मैं नदी थी…
नहीं ?
हाँ; तुम कितने किशोर थे
और तुम पर तीन आत्माएँ मँडरा रही थीं,
और मैं आयी
और बहती हुई तुममें प्रविष्ट हो गयी,
उनको अपदस्थ करती हुई
मैं तुमसे एकमेक रही हूँ,
तुमको रत्ती-रत्ती जानती हूँ
क्या मैंने तुम्हारी हथेलियाँ और अँगुलियों के पोर नहीं छुए हैं ?
मैं तुममे आयी,
तुम्हारे आरपार गयी,
एड़ियों के आसपास तक
और आना जाना क्या ?
क्या मैं ही तुम नहीं थी ?
केवल तुम ?
और इस स्थान में कण-भर धूप भी
मुझे चैन देने नहीं आती
गहन तिमिर मुझे चीर रहा है
और मुझ पर ज्योति अवतरित नहीं होती,
और तुम भी एक शब्द नहीं कहते,
दिन-पर-दिन बीत जाते हैं।

ओह मैं मुक्त हो सकती हूँ, सील मुहर
और द्वार पर की गयी तमाम शिल्पकारी के बावजूद
हरे काँच से बाहर जा सकती हूँ…
किन्तु यहाँ शान्ति है
अतः कौन जाय ?

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