साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / अष्ठम सर्ग / पृष्ठ ९

“भाभी, तुम पर है मुझे भरोसा दूना,
तुम पूर्ण करो निज भरत-मातृ-पद ऊना।
जो कोसलेश्वरी हाय! वेश ये उनके?
मण्डन हैं अथवा चिन्ह शेष ये उनके?”
“देवर, न रुलाओ आह, मुझे रोकर यों,
कातर होते हो तात, पुरुष होकर यों?
स्वयमेव राज्य का मूल्य जानते हो तुम,
क्यों उसी धूल में मुझे सानते हो तुम?
मेरा मण्डन सिन्दूर-बिन्दु यह देखो,
सौ सौ रत्नों से इसे अधिक तुम लेखो।
शत चन्द्र-हार उस एक अरुण के आगे
कब स्वयं प्रकृति ने नहीं स्वयं ही त्यागे?
इस निज सुहाग की सुप्रभात वेला में,
जाग्रत जीवन की खण्डमयी खेला में,
मैं अम्बा-सम आशीष तुम्हें दूँ, आओ,
निज अग्रज से भी शुभ्र सुयश तुम पाओ!”
“मैं अनुगृहीत हूँ, अधिक कहूँ क्या देवी,
निज जन्म जन्म में रहूँ सदा पद-सेवी।
हे यशस्विनी, तुम मुझे मान्य हो यश से,
पर लगें न मेरे वचन तुम्हें कर्कश-से।
तुमने मुझको यश दिया स्वयं श्रीमुख से,
सुख-दान करें अब आर्य बचा कर दुख से।
हे राघवेन्द्र, यह दास सदा अनुयायी,
है बड़ी दण्ड से दया अन्त में न्यायी!”
“क्या कुछ दिन तक भी राज्य भार है भाई?
सब जाग रहे हैं, अर्द्ध रात्रि हो आई।”
“हे देव, भार के लिए नहीं रोता हूँ,
इन चरणों पर ही मैं अधीर होता हूँ।
प्रिय रहा तुम्हें यह दयाघृष्टलक्षण तो,
कर लेंगी प्रभु-पादुका राज्य-रक्षण तो।
तो जैसी आज्ञा, आर्य सुखी हों वन में,
जूझेगा दुख से दास उदास भवन में।
बस, मिलें पादुका मुझे, उन्हें ले जाऊँ,
बच उनके बल पर, अवधि-पार मैं पाऊँ।
हो जाय अवधि-मय अवध अयोध्या अब से,
मुख खोल नाथ, कुछ बोल सकूँ मैं सब से।”
“रे भाई, तूने रुला दिया मुझको भी,
शंका थी तुझसे यही अपूर्व अलोभी!
था यही अभीप्सित तुझे अरे अनुरागी,
तेरी आर्या के वचन सिद्ध हैं त्यागी!”
“अभिषेक अम्बु हो कहाँ अधिष्ठित, कहिए,
उसकी इच्छा है–यहीं तीर्थ बन रहिए।
हम सब भी करलें तनिक तपोवन-यात्रा।”
“जैसी इच्छा, पर रहे नियत ही मात्रा।”

तब सबने जय जयकार किया मनमाना,
वंचित होना भी श्लाघ्य भरत का जाना।
पाया अपूर्व विश्राम साँस-सी लेकर,
गिरि ने सेवा की शुद्ध अनिल-जल देकर।
मूँदे अनन्त ने नयन धार वह झाँकी,
शशि खिसक गया निश्चिन्त हँसी हँस बाँकी।
द्विज चहक उठे, होगया नया उजियाला,
हाटक-पट पहने दीख पड़ी गिरिमाला।
सिन्दूर-चढ़ा आदर्श-दिनेश उदित था,
जन जन अपने को आप निहार मुदित था।
सुख लूट रहे थे अतिथि विचर कर, गाकर–
’हम धन्य हुए इस पुण्यभूमि पर आकर।’

इस भाँति जनों के मनोंमुकुल खिलते थे,
नव नव मुनि-दर्शन, प्रकृति-दृश्य मिलते थे।
गुरु-जन-समीप थे एक समय जब राघव,
लक्ष्मण से बोली जनकसुता साऽलाघव–
हे तात, तालसम्पुटक तनिक ले लेना,
बहनों को वन-उपहार मुझे है देना।
“जो आज्ञा”–लक्ष्मण गये तुरन्त कुटी में;
ज्यों घुसे सूर्य-कर-निकर सरोज-पुटी में।
जाकर परन्तु जो वहाँ उन्होंने देखा,
तो दीख पड़ी कोणस्थ उर्मिला-रेखा।
यह काया है या शेष उसी की छाया,
क्षण भर उनकी कुछ नहीं समझ में आया!

“मेरे उपवन के हरिण, आज वनचारी,
मैं बाँध न लूँगी तुम्हें; तजो भय भारी।”
गिर पड़े दौड़ सौमित्रि प्रिया-पद-तल में;
वह भींग उठी प्रिय-चरण धरे दृग-जल में।

“वन में तनिक तपस्या करके
बनने दो मुझको निज योग्य,
भाभी की भगिनी, तुम मेरे
अर्थ नहीं केवल उपभोग्य।”
“हा स्वामी! कहना था क्या क्या,
कह न सकी, कर्मों का दोष!
पर जिसमें सन्तोष तुम्हें हो
मुझे उसी में है सन्तोष।”

एक घड़ी भी बीत न पाई,
बाहर से कुछ वाणी आई।
सीता कहती थीं कि–“अरे रे,
आ पहुँचे पितृपद भी मेरे!”

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