लड़की / उत्पल बैनर्जी

लड़की को बोलने दो
लड़की की भाषा में,
सुदूर नीलाकाश में खोलने दो उसे
मन की खिड़कियाँ,
उस पार
शिरीष की डाल पर बैठा है
भोर का पहला पक्षी
पलाश पर उतर आई है
प्रेमछुई धूप
उसे गुनगुनाने दो कोई प्रेमगीत
सजाने दो सपनों के वन्दनवार
बुनने दो कविता
भाषा के सूर्योदय में
मन की बात कहने दो उसे
अन्तहीन पीड़ा के नेपथ्य से फूटने दो
निशिगन्धा की किलकारियाँ,
सदियों से बंधी नाव को जाने दो
सागर की उत्ताल तरंगों में।

आदर्श शिखरों से उतर आना चाहती है लड़की
भविष्य की पगडंडियों पर
उसे रोको मत
उसे चुनने दो
झरबेरी सीप और मधुरिमा
करने दो उसे उपवास और प्रार्थनाएँ
रखने दो देहरी पर दीप
उसे मत रोको प्रेम करने से।

अगर सचमुच बचाना चाहते हो
सृष्टि की सबसे सुन्दर कविता को
तो, आग की ओर जाती लड़की को रोको
रोको —
उसके जीवन में दोस्त की तरह प्रवेश करते
दुःख और मज़बूरी को
रोको उसे दिशाहीन होकर
नदी में डूबने से
रोको —
‘सबकुछ’ को
‘कुछ नहीं’ हो जाने से!!

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