बरगद / संगीता गुप्ता

बरगद के नीचे आकर
निश्चिन्त हो जाते हैं
धूप से अकुलाए लोग

आकर ठहरे
जीने लगते
उसकी छाया में

नहीं चाहता बरगद
समर्थ पिता की तरह
कि कोई बना रहे हमेशा
उसकी छत्र – छाया में
कटता चला जाए
अपनी जड़ो से

बरगद की मंशा नहीं
फितरत है कुदरत की
न पनपने देना किसी को
अपनी छांव में

रोते हुए बरगद को
कोई नहीं देख पाता
कितने एक जैसे हैं
आदमी और बरगद

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