प्रेम को बचाते हुए / ज्ञान प्रकाश चौबे

मैंने उसे एक चिट्ठी लिखी
जिसमें नम मिट्टी के साथ मखमली घास थी
घास पर एक टिड्डा बैठा था
पूरी हरियाली को अपने में समेटे हुए

जाड़े की चटकीली धूप से
लिखा उसमें तुम्हें भूला नही हूँ
तुम्हारा चेहरा बादलों के पीछे
अक्सर दिखाई देता है

तुम्हारी हँसी हँसता हूँ
गाता हूँ तुम्हारे लिखे गीत
अभी भी नर्म शाम में
मेरी लिखी प्रेम कविताओं में
झाँकता है तुम्हारा चेहरा
तुम्हारी हथेली का गुदाज स्पर्श
मेरे कान की लौ लाल करता है
भरी बरसात में भीगते हुए

मैंने लिखा उसे
तुम्हारा रूमाल तुम्हारी महक से भरपूर
मौज़ूद है मेरी बाईं जेब में
मेरी डायरी में ज़िन्दा है तुम्हारा गुलाब
तुम्हारे होंठो की लाली
दिखती है मेरी बनाई तस्वीर में

बेस्वाद नहीं हुई है
तुम्हारी बनाई मीठी खीर
और न ही भूला हूँ
तुम्हारी चिकोटी का तीख़ापन
सबकुछ बचा है
भरपूर नमक और पूरी मिठास के साथ

अंत में लिखा मैंने
मेरे क़दमों के साथ
तुम्हारे क़दमों की थाम बजती है
निशान पड़ते हैं
गीली मिट्टी पर चलते हुए मेरे साथ ही

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