नहीं आने के लिए कहकर / एकांत श्रीवास्तव

नहीं आने के लिए कह कर जाऊंगा
और फिर आ जाऊंगा

पवन से, पानी से, पहाड़ से
कहूंगा– नहीं आऊंगा
दोस्तों से कहूंगा और ऎसे हाथ मिलाऊंगा
जैसे आख़िरी बार
कविता से कहूंगा– विदा
और उसका शब्द बन जाऊंगा
आकाश से कहूंगा और मेघ बन जाऊंगा
तारा टूटकर नहीं जुड़ता
मैं जुड़ जाऊंगा
फूल मुरझा कर नहीं खिलता
मैं खिल जाऊंगा

हर समय ‘दुखता रहता है यह जो जीवन’
हर समय टूटता रहता है यह जो मन
अपने ही मन से
जीवन से
संसार से
रूठ कर दूर चला जाऊंगा
नहीं आने के लिए कहकर

और फिर आ जाऊंगा ।

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