कोई चिराग़ नहीं है मगर उजाला है
ग़ज़ल की शाख़ पे इक फूल खिलने वाला है
ग़ज़ब की धूप है इक बे-लिबास पत्थर पर
पहाड़ पर तेरी बरसात का दुशाला है
अजीब लहजा है दुश्मन की मुस्कराहट का
कभी गिराया है मुझको कभी सँभाला है
निकल के पास की मस्जिद से एक बच्चे ने
फ़साद में जली मूरत पे हार डाला है
तमाम वादी में, सहरा में आग रोशन है
मुझे ख़िज़ाँ के इन्हीं मौसमों ने पाला है