कार्तिक पूर्णिमा / एकांत श्रीवास्तव

आज सिरा रहे हैं लोग
दोने में धरकर अपने-अपने दिये
अपने-अपने फूल
और मन्‍नतों की पीली रोशनी में
चमक रही है नदी

टिमटिमाते दीपों की टेढ़ी-मेढ़ी पाँतें
साँवली स्‍लेट पर
जैसे ढाई आखर हों कबीर के

देख रहे हैं काँस के फूल
खेतों की मेड़ों पर खड़े
दूर से यह उत्‍सव

चमक रहा है गाँव
जैसे नागकेसर धान से
भरा हुआ हो काँस का कटोरा

आज भूले रहें थोड़ी देर हम
पाँवों में गड़ा हुआ काँटा
और झरते रहें चाँदनी के फूल

आज बहता रहे
हमारी नींद में
सपनों-सा मीठा यह जल।

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