अतृप्ति / महादेवी वर्मा

चिर तृप्ति कामनाओं का
कर जाती निष्फल जीवन,
बुझते ही प्यास हमारी
पल में विरक्ति जाती बन।
पूर्णता यही भरने की
ढुल, कर देना सूने घन;
सुख की चिर पूर्ति यही है
उस मधु से फिर जावे मन।
चिर ध्येय यही जलने का
ठंढी विभूति बन जाना;
है पीड़ा की सीमा यह
दुख का चिर सुख हो जाना!
मेरे छोटे जीवन में
देना न तृप्ति का कणभर;
रहने दो प्यासी आँखें
भरतीं आंसू के सागर।
तुम मानस में बस जाओ
छिप दुख की अवगुण्ठन से;
मैं तुम्हें ढूँढने के मिस
परिचित हो लूँ कण कण से।
तुम रहो सजल आँखों की
सित असित मुकुरता बन कर;
मैं सब कुछ तुम से देखूँ
तुमको न देख पाऊँ पर!
चिर मिलन विरह-पुलिनों की
सरिता हो मेरा जीवन;
प्रतिपल होता रहता हो
युग कूलों का आलिंगन!
इस अचल क्षितिज रेखा से
तुम रहो निकट जीवन के;
पर तुम्हें पकड़ पाने के
सारे प्रयत्न हों फीके।
द्रुत पंखोंवाले मन को
तुम अंतहीन नभ होना;
युग उड़ जावें उड़ते ही
परिचित हो एक न कोना!
तुम अमरप्रतीक्षा हो मैं
पग विरहपथिक का धीमा;
आते जाते मिट जाऊँ
पाऊँ न पंथ की सीमा।
तुम हो प्रभात की चितवन
मैं विधुर निशा बन आऊँ;
काटूँ वियोग-पल रोते
संयोग-समय छिप जाऊँ!
आवे बन मधुर मिलन-क्षण
पीड़ा की मधुर कसक सा;
हँस उठे विरह ओठों में—
प्राणों में एक पुलक सा।
पाने में तुमको खोऊँ
खोने में समझूँ पाना;
यह चिर अतृप्ति हो जीवन
चिर तृष्णा हो मिट जाना!
गूँथे विषाद के मोती
चाँदी की स्मित के डोरे;
हों मेरे लक्ष्य-क्षितिज की
आलोक तिमिर दो छोरें।

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